Wednesday, December 31, 2008

पुरुषसूक्तम्-१५

सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुं॥१५॥

अस्य सांकल्पिकयज्ञस्य गायत्र्यादीनि सप्त च्छंदांसि परिधय आसन्। ऐष्टिकस्याहवनीयस्य त्रयः परिधय उत्तरवेदिकास्त्रय आदित्यश्च सप्तमः परिधिप्रतिनिधिरूपः। अत एवाम्नायते। पुरस्तात्परिदध्यादित्यादित्यो ह्येवोद्यन्पुरस्ताद्रक्षांस्यपहंतीति। तत एत आदित्यसहिताः सप्त परिधयोऽत्र सप्त च्छंदोरूपाः। तथा समिधस्त्रिः सप्त त्रिगुणीकृतसप्तसंख्याका एकविंशतिः कृताः। द्वादश मासाः पंचर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः। तै.सं. ..१०.३। इति श्रुताः पदार्था एकविंशतिदारुयुक्तेंधनत्वेन भाविताः। यद्यः पुरुषो वैराजोऽस्ति तं पुरुषं देवः प्रजापतिप्राणेंद्रियरूपा यज्ञं तन्वाना मानसं यज्ञं तन्वानाः कुर्वाणाः पशुमबध्नन्। विराट्पुरुषमेव पशुत्वेन भावितवंतः। एतदेवाभिप्रेत्य पूर्वत्र यत्पुरुषेण हविषेत्युक्तं।

गायत्री आदि सात छंद इस सांकल्पिक यज्ञ कीं परिधियाँ हुईं। एष्टिक-आहवनीय की तीन (परिधियाँ), उत्तरवेदिका की तीन एवं सातवाँ सूर्य, यह सात यज्ञपरिधि के प्रतिनिधि रूप में प्रयुक्त हुए। (कहा भी गया है - ‘न पुरस्तात्परिदध्यादित्यादित्यो ह्येवोद्यन्पुरस्ताद्रक्षांस्यपहंतीति’। अतः, स्पष्ट है कि सूर्य सहित यह कुल सात उस यज्ञ कीं छन्द रूपी परिधियाँ थीं।) तथा तीन गुणा सात अर्थात् इक्कीस समिधायें भी कल्पित की गईं। ‘द्वादश मासाः पंचर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः’ - बारह मास, पाँच ऋतुयें, तीन लोक और इक्कीसवाँ सूर्य। (तै.सं. ५.१.१०.३)। इस प्रकार इक्कीस पदार्थ ईंधन के लिये लकड़ियों के रूप में कल्पित किये गये। जो विराट् पुरुष था, उसे यज्ञ करते हुए, प्रजापति के प्राणेंद्रियरूपी देवताओं ने पशु रूप में बाँधा - अर्थात् विराट् पुरुष को ही पशु रूप में कल्पित किया। यह बात पहले ‘यत्पुरुषेण हविषा’ में भी कही गयी है।

Saturday, December 27, 2008

पुरुषसूक्तम्-१४

नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

यथा चंद्रादीन्प्रजापतेर्मनःप्रभृतिभ्योऽकल्पयन् तथांतरिक्षादीँल्लोकान्प्रजापतेर्नाभ्यादिभ्यो देवा अकल्पयन्। उत्पादितवंतः। एतदेव दर्शयति। नाभ्याः प्रजापतेर्नाभेरंतरिक्षमासीत्। शीर्ष्णः शिरसो द्यौः समवर्तत। उत्पान्ना। अस्य पद्भ्यां पादाभ्यां भूमिरुत्पन्ना। अस्य श्रोत्राद्दिश उत्पन्नाः।

जिस प्रकार चन्द्र आदि देवताओं को प्रजापति के मन आदि अंगों से (देवताओं ने) कल्पित किया, वैसे ही अंतरिक्ष आदि लोकों को प्रजापति के नाभि आदि अंगों से देवताओं ने कल्पित किया, अर्थात् उत्पन्न किया। प्रजापति की नाभि से अंतरिक्ष (का जन्म) हुआ। शीर्ष से द्युलोक उत्पन्न हुआ। पैरों से भूमि उत्पन्न हुई। कान से दिशाऐं उत्पन्न हुईं।

पुरुषसूक्तम्-१३

चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिंद्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥

यथा दध्याज्यादिद्रव्याणि गवादयः पशव ऋगादिवेदा ब्राह्मणादयो मनुष्याश्च तस्मादुत्पन्ना एवं चंद्रादयो देवा अपि तस्मादेवोत्पन्ना इत्याह। प्रजापतेर्मनसः सकाशाच्चंद्रमा जातः। चक्षोश्च चक्षुषः सूर्योऽप्यजायत। अस्य मुखादिंद्रश्चाग्निश्च देवावुत्पन्नौ। अस्य प्राणाद्वायुरजायत।

जिस प्रकार दधि, घृत आदि द्रव्य, गौ आदि पशु, ऋक् आदि वेद और ब्राह्मण आदि मनुष्य उस (प्रजापति) से उत्पन्न हुए, वैसे ही चन्द्रमा आदि देवता भी उस (प्रजापति) से ही उत्पन्न हुए। प्रजापति के मन से चन्द्रमा का जन्म हुआ। उनकी आँख से सूर्य का जन्म हुआ। मुख से इन्द्र और अग्नि, यह दो देवता उत्पन्न हुए। प्राण से वायु का जन्म हुआ।

Wednesday, December 24, 2008

पुरुषसूक्तम्-१२

ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२॥

इदानीं पूर्वोक्तानां प्रश्नानामुत्तराणि दर्शयति। अस्य प्रजापतेर्ब्राह्मणो ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टः पुरुषो मुखमासीत्। मुखादुत्पन्न इत्यर्थः। योऽयं राजन्यः क्षत्रियात्वजातिमान्पुरुस्छा बाहू कृतः। बाहुत्वेन निष्पादितः। बाहुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः। तत्तदानीमस्य प्रजापतेर्यदूरू तद्रूपो वैश्यः संपन्नः। ऊरूभ्यामुत्पन्न इत्यर्थः। तथास्य पद्भ्यां पादाभ्यां शूद्रः शूद्रत्वजातिमान्पुरुषोऽजायत। इयं मुखादिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजुःसंहितायां सप्तमकांडे मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत। तै.. ...४। इत्यादौ विस्पष्टाम्नाता। अतः प्रश्नोत्तरे उभे अपि तत्परतयैव योजनीये।

अब पूर्वोक्त प्रश्नों के उत्तर बताये गये हैं। ब्राह्मण जाति का पुरुष प्रजापति का मुख था, अर्थात् मुख से उत्पन्न हुआ। जो क्षत्रिय जाति का पुरुष था, वह पुरुष की बाहुओं से उत्पन्न हुआ। इसके बाद प्रजापति कि जाँघों से वैश्य जाति का पुरुष उत्पन्न हुआ तथा पैरों से शूद्र जाति का पुरुष उत्पन्न हुआ। (प्रजापति के मुख आदि से ब्राह्मण आदि वर्गों की उत्पत्ति यजुर्वेद के सप्तम कांड में भी कही गई है - ‘स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत।‘ ‘उसने मुख से त्रिवृत (अर्थात् ब्राह्मण) का निर्माण किया’। तै.सं. ७.१.१.४। अतः इन प्रश्नोत्तरों को इसी प्रकार से समझना चाहिये। अर्थात् ब्राह्मण वर्ग का पुरुष का मुख होने से अभिप्राय है कि वह पुरुष के मुख से उत्पन्न हुआ।)

Monday, December 22, 2008

पुरुषसूक्तम्-११

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥११॥

प्रश्नोत्तररूपेण ब्राह्मणादिसृष्टिं वक्तुं ब्रह्मवादिनां प्रश्ना उच्यंते। प्रजापतेः प्राणरूपा देवा यद्यदा पुरुषं विराड्रूपं व्यदधुः संकल्पेनोत्पादितवंतः तदानीं कतिधा कतिभिः प्रकारैर्व्यकल्पयन्। विविधं कल्पितवंतः। अस्य पुरुषस्य मुखं किमासीत्। कौ बाहू अभूतां। का उरू। कौ पादावुच्येते। प्रथमं सामान्यरूपः प्रश्नः पश्चान्मुखं किमित्यादिना विशेषविषयाः प्रश्नाः।

प्रश्नोत्तर रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चतुर्वर्ग की सृष्टि बताने के लिये ब्रह्मवादियों के प्रश्न बताये गये हैं। जब प्रजापति के प्राणरूपी देवताओं ने विराट् रूपी पुरुष को उत्पन्न किया तब किस प्रकार से उसे कल्पित किया? अर्थात् इस पुरुष का मुख क्या था? इसके दो बाहु क्या थे? इसकी दो जाँघें क्या थीं? और इसके दो पैर क्या थे? प्रथम प्रश्न सामान्य प्रश्न है और बाद के प्रश्न ‘मुख क्या था‘ इत्यादि विशेष प्रश्न हैं।

Saturday, December 20, 2008

पुरुषसूक्तम्-१०

तस्मादश्वा अजायंत ये के चोभयादतः। गावो जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥१०॥

तस्मात्पूर्वोक्ताद्यज्ञादश्वा अजायंत। उत्पन्नाः। तथा ये के चाश्वव्यतिरिक्ता गर्दभा अश्वतराश्चोभयादत उर्ध्वाधोभागयोरुभयोर्दंतयुक्ताः संति तेऽप्यजायंत। तथा तस्माद्यज्ञाद्गावश्च जज्ञिरे। किं तस्माद्यज्ञादजावयश्च जाताः।

उस यज्ञ से अश्वों का जन्म हुआ। तथा अश्व को छोड़कर जो गदर्भ आदि पशु हैं तथा जो उभयादत अर्थात् उपर और नीचे दोनों दंतपंक्तियों से युक्त हैं, उनक पशुओं का भी जन्म हुआ। उस यज्ञ से गावों का जन्म हुआ। इसके अतिरिक्त उस यज्ञ से भेड़-बकरियों का भी जन्म हुआ।

पुरुषसूक्तम्-९

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥९॥

सर्वहुतस्तस्मात्पूर्वोक्ताद्यज्ञादृचः सामानि जज्ञिरे। उत्पन्नाः। तस्माद्यज्ञाच्छंदांसि गायत्र्यादीनि जज्ञिरे। तस्माद्यज्ञाद्यजुरप्यजायत।

उस सर्वहुत् यज्ञ से ऋग्वेद की ऋचाओं और सामवेद के मन्त्रों का जन्म हुआ। उस यज्ञ से गायत्रि आदि छन्दों का जन्म हुआ। उस यज्ञ से यजुर्वेद का भी जन्म हुआ।

पुरुषसूक्तम्-८

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥

सर्वहुतः। सर्वात्मकः पुरुषो यस्मिन्यज्ञे हूयते सोऽयं सर्वहुत्। तादृशात्तस्मात्पूर्वेक्तान्मानसाद्यज्ञात्पृषदाज्यं दधिमिश्रमाज्यं संभृतं। संपादितं। दधि चाज्यं चेत्येवमादिभोग्यजातं सर्वं संपादितमित्यर्थः। तथा वायव्यान्वायुदेवताकाँल्लोकप्रसिद्धानारण्यान्पशूंश्चक्रे। उत्पादित्वान्। आरण्या हरिणादयः। तथा ये ग्राम्या गवाश्वादयः तानपि चक्रे। पशूनामंतरिक्षद्वारा वायुदेवत्यत्वं यजुर्ब्रह्मणे समाम्नायते। वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अंतरिक्षस्याध्यक्षाः। अंतरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददातीति।तै.ब्रा. ...३। इति।

इस सर्वहुत् मानसिक यज्ञ से दधिमिश्रित घृत का उत्पादन हुआ। सर्वहुत् अर्थात् सर्वात्मक पुरुष की जिस यज्ञ में आहूति दी जाती है। दधि और घृत आदि सभी भोग्य पदार्थों का उत्पादन हुआ। तथा विभिन्न प्रसिद्ध वायव्य और आरण्य पशुओं का भी सृजन हुआ। वायव्य अर्थात् वायु देवता के अधीन पशु| आरण्य जैसे हिरण आदि पशु। इसके अतिरिक्त ग्राम्य पशु जैसे गौ, अश्व आदि का भी सृजन हुआ। (वायु देवता के अधीन पशुओं के बारे में यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ में भी कहा गया है। ‘वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अंतरिक्षस्याध्यक्षाः। अंतरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददातीति|’ वायु में स्थित या अंतरिक्ष देवता कि अधीन पशु। वायु देवता ही इन्हें उत्पन्न करते हैं। तै.ब्रा. ३.२.१.३।)

Thursday, December 18, 2008

पुरुषसूक्तम्-७

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्व ये॥७॥

यज्ञं यज्ञसाधनभूतं तं पुरुषं पशुत्वभावनया यूपे बद्धं बर्हिषि मानसे यज्ञे प्रौक्षन्। प्रोक्षितवंतः। कीदृशमित्यत्राह। अग्रतः सर्वसृष्टेः पूर्वं पुरुषं जातं पुरुषत्वेनोत्पन्नं। एतच्च प्रागेवोक्तं तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पूरुष इति। तेन पुरुषरूपेण पशुना देवा अयजंत। मनसयागं निष्पादितवंत इत्यर्थः। के ते देवा इत्यात्राह। साध्याः सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः तदनुकूला ऋषयो मंत्रद्रष्टारश्च ये संति। ते सर्वेऽप्ययजंतेत्यर्थः।

सृष्टि से पूर्व उत्पन्न उस यज्ञपुरुष को उस मानसिक यज्ञ में यज्ञ-पशु के रूप में प्रयुक्त किया गया। पशुरूप में कल्पित और लकड़ी के स्तम्भ से बंधे उस पुरुष पर जल छिड़क कर उसका प्रौक्षण किया गया। उस पुरुष रूपी पशु के द्वारा देवताओं ने यज्ञ का निष्पादन किया। वे देवता कौन-कौन थे? साध्यगण, अर्थात् सृष्टि के साधनयोग्य प्रजापति आदि देवतागण, एवं उनके अनुकूल अन्य ऋषि और मंत्रद्रष्टा। इन सभी ने मिलकर यज्ञ किया।

Tuesday, December 16, 2008

पुरुषसूक्तम्-६

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसंतो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥६॥

यद्यदा पूर्वोक्तक्रमेणैव शरीरेषूत्पन्नेषु सत्सु देवा उत्तरसृष्टिसिद्ध्यार्थं वाह्यद्रव्यस्यानुत्पन्नत्वेन हविरंतरासंभवात्पुरुषस्वरूपमेव मनसा हविष्टेन संकल्पय पुरुषेण पुरुषाख्येन हविषा मानसं यज्ञमतन्वत अन्वतिष्ठसन् तदानीमस्य वसंतो वसंतर्तुरेवाज्यमासीत्। अभूत्। तमेवाज्यत्वेन संकल्पितवंत इत्यर्थः। एवं ग्रीष्म इध्मासीत्। तमेवेध्मत्वेन संकल्पितवंत इत्यर्थः। तथा शरद्धविरासीत्। तामेव पुरोडाशादिहविष्ट्वेन संकल्पितवंत इत्यर्थः। पूर्वं पुरुषस्य हविःसामान्यरूपत्वेन संकल्पः। अनंतरं वसंतादीनामाज्यादिविशेषरूपत्वेन संकल्प इति द्रष्टव्यं।

पूर्वोक्त क्रमानुसार शरीरों के उत्पन्न होने के पश्चात् बची हुई सृष्टि के सृजन के लिए मानसिक यज्ञ किया गया। बाह्य द्रव्यों के इस समय तक उत्पन्न न होने के कारण कोई और पदार्थ आहूति देने के लिए उपलब्ध नहीं था, अतः पुरुष के स्वरूप को हि यज्ञ के रूप में संकल्पित किया गया और पुरुष को ही आहूति के रूप में भी कल्पित किया गया। इस यज्ञ में वसंत ऋतु का घृत, ग्रीष्म ऋतु का समिधा (लकड़ियाँ) एवं शरद ऋतु का हवि (चावल आदि हवन सामग्री ) के रूप में प्रयोग किया गया। पहले पुरुष का सामान्य रूप में हवि की तरह प्रयोग किया गया, तत्पश्चात् (वसंत आदि ऋतुओं के उत्पन्न होने के बाद) उस पुरुष को वसंत आदि विशिष्ट रूपों में घृत आदि की तरह प्रयोग किया गया।

Monday, December 15, 2008

पुरुषसूक्तम्-५

तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पूरुषः। जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥५॥

विष्वङ् व्यक्रामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपंच्यते। तस्मादादिपुरुषाद्विराड्ब्रह्मांडदेहोऽजायत। उत्पन्नः। विविधानि राजंते वस्तून्यत्रेति विराट्। विराजोऽधि विराड्देहस्योपरि तमेव देहमधिकरणं कृत्वा पुरुषः तद्देहाभिमानी कश्चित्पुमानजायत। सोऽयं सर्ववेदांतवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्देहं ब्रह्मांडरुपं सृष्ट्वा तत्र जीवरुपेण प्रविश्य ब्रह्मांडाभिमानी देवतात्मा जीवोऽभवत्। एतच्चाथर्वणिका उत्तरतापनीये विस्पष्टमामनंति। वा एष भूतानींद्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव। नृ. ता. ..९। इति। जातो विराट् पुरुषोऽत्यरिच्यत। अतिरिक्तोऽभूत्। विराड्व्यतिरक्तो देवतिर्यङ्मनुष्यादिरुपोऽभूत्। पश्चादेवादिजीवभावादूर्ध्वं भूमिं ससर्जेति शेषः। अथो भूमिसृष्टेरनंतरं तेषां जीवानां पुरः ससर्ज। पूर्यंते सप्तधातुभिरिति पुरः शरीराणि।

पिछले श्लोक के ‘विष्वङ्व्याक्रामत्’ का यहाँ विस्तार किया गया है। उस आदि पुरुष से विराट् का जन्म हुआ। विराट् अर्थात् जिसमें विविध वस्तुऐँ शोभायमान होती हैं। यह ब्रह्माण्ड उस विराट् का देह हुआ। ‘विराजोऽधि’ अर्थात्, उस विराट् के देह को अधिकृत कर, उस देह में अभिमान करने वाला एक पुरुष उत्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में, सर्ववेदांतवेद्य परमात्मा ने अपनी माया के द्वारा इस ब्रह्मांड का सृजन किया और उसमें जीव रूपे से प्रविष्ट हो गया। (यह बात अथर्ववैदिक उत्तरतापनीय उपनिषद में भी स्पष्ट की गई है। ‘वह माया के द्वारा पंचमहाभूतों, इन्द्रियों, इन्द्रियों के अधिष्टातृ देवताओं और शरीर के पाँच कोशों का सृजन कर विराट् में प्रवेश करके, अमूढ होते हुए भी मूढ की तरह विराजमान है।‘ नृ.ता. २.१.९।) वह विराट् जन्म के उपरान्त अलग होकर देवता, पशु, मनुष्य आदि रूपों में परिणित हो गया। इसके पश्चात् उसने भूमि का सृजन किया। इसके उपरान्त जीवों के पुरों (शरीरों) का सृजन किया। पुर अर्थात् जो सप्तधातुओं से पूरित होता है, अर्थात् शरीर।

Friday, December 12, 2008

पुरुषसूक्तम्-४

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषःपादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वङ्व्याक्रामत्साशनानशने अभि॥४॥

योऽयं त्रिपात्पुरुषः संसाररहितो ब्रह्मस्वरूपः सोऽयमूर्ध्व उदैत्। अस्मादज्ञानकार्यात्संसाराद्वहिर्भूतोऽत्रत्यैर्गुणदोषैरस्पृष्ट उत्कर्षेण स्थितवान्। तस्यास्य सोऽयं पादो लेशः सोऽयमिह मायायां पुनरभवत्। सृष्टिसंहाराभ्यां पुनःपुनरागच्छति। अस्य सर्वस्य जगतः परमात्मलेशत्वं भगवताप्युक्तं। विष्टभ्याहमिदं क्रित्सनामेकानशें स्थितो जगत्। .गी. १०.४२। इति। ततो मायायामागत्यानंतरं विष्वङ् देवमनुष्यतिर्यगादिरुपेण विविधः सन् व्यक्रामत्। व्याप्तवान्। किं कृत्वा। साशनानशने अभिलक्ष्य। साशनं भोजनादिव्यवहारोपेतं चेतनं प्राणिजातं अनशनं तद्रहितमचेतनं गिरिनद्यादिकं। तदुभ्यं यथा स्यात्तथा स्वयमेव विविधो भूत्वा व्याप्तवानित्यर्थः।

पुरुष का जो संसार से रहित, ब्रह्मस्वरुपक त्रिपात् अंश था, वह उपर की और उठ गया। अर्थात्, इस अज्ञान से उत्पन्न संसार से बाहर निकल कर, सांसारिक गुणदोषों से अस्पृष्ट, ऊँचाई में स्थित हो गया। उसका बचा हुआ एक-चौथाई अंश यहाँ माया में पुनः उत्पन्न हुआ। वह अंश सृष्टि एवं संहार के द्वारा पुनः पुनः उत्पन्न होता है। (इस समस्त जगत का परमात्मा का अंश होना भगवान के द्वारा भी कहा गया है। 'विष्टभ्याहमिदं कृत्सनमेकांशेन स्थितो जगत्।' मैं इस समस्त जगत को एक अंश से व्याप्त कर स्थित हूँ। भ.गी. १०.४२।) माया में उत्पन्न होने के पश्चात् उसने इस विश्व को देवता, मनुष्य, पशु आदि विविध साशन और अनशन रुपों के द्वारा व्याप्त किया। साशन अर्थात् भोजन आदि व्यवहार से सम्पन्न चेतन प्राणिजाती, अनशन अर्थात् इस व्यवहार से रहित, अचेतन पदार्थ जेसै पर्वत, नदी आदि। स्वयं को उसने उन दोनों प्रकार के विविध रुपों में परिणित करके व्याप्त किया, यह अर्थ है।

Thursday, December 11, 2008

पुरुषसूक्तम्-३

एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥

अतीतानागतवर्तमानरुपं जगद्यावदस्ति एतावान्सर्वोऽप्यस्य पुरुषस्य महिमा। स्वकीयसामर्थ्यविशेषः। तु तस्य वास्तवस्वरुपं। वास्तवस्तु पुरुषोऽतो महिम्नोऽपि ज्यायान्। अतिशयेनाधिकः। एतच्चोभयं स्पष्टीक्रियते। अस्य पुरुषस्य विश्वा सर्वाणि भूतानि कालत्रयवर्तीनि प्राणिजातानि पादः। चतुर्थोंऽशः। अस्य पुरुषस्यावशिष्टं त्रिपात्स्वरूपममृतं विनाशरहितं सद्दिवि द्योतनात्मके स्वप्रकाशस्वरूपे व्यवतिष्ठ इति शेषः। यद्यपि सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म। तै. . . . .१। इत्याम्नातस्य परब्रह्मण इयत्ताभावात्पादचतुष्टयं निरूपयितुमशक्यं तथापि जगदिदं ब्रह्मस्वरूपापेक्षयाल्पमिति विवक्षितत्वात्पादत्वोपन्यासः।

जितना भी यह अतीत, अनागत एवं वर्तमान जगत है, यह सब इस पुरुष की महिमा ही है। एक विशेष सामर्थ्य मात्र ही है। पुरुष का वास्तविक स्वरूप नहीं है। वस्तुत्व तो पुरुष अपनी इस महिमा से कई बढकर है। तीनों कालों में वर्तमान सभी प्राणी इस पुरुष के मात्र चतुर्थ अंश हैं। इस पुरुष का बचा हुआ तीन-चौथाई अंश विनाशरहित होकर स्वप्रकाशशील रूप में आकाश में अवस्थित है। उपनिषद कहता है कि ‘सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म’। अतः उपनिषद के अनुसार भी ब्रह्म के जगतमात्र न होने के कारण इसके बचे हुए तीन-चौथाई अंश का वर्णन नहीं किया जा सकता। किंतु फिर भी यह जगत इस ब्रह्म स्वरूप की अपेक्षा अल्प ही है, यह बताने के लिए पुरुष को अंशों में विभक्त किया गया है।

Wednesday, December 10, 2008

पुरुषसूक्तम्-२

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यं। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥२॥

यदिदं वर्तमानं जगत्तत्सर्वं पुरुष एव। यच्च भूतमतीतं जगाद्याच्च भव्यं भविष्यज्जगत् तदपि पुरुष एव। यथास्मिन्कल्पे वर्तमानाः प्राणिदेहाः सर्वेऽपि विराट्पुरुषस्यावयवाः तथैवातीतागामिनोरपि कल्पयोर्द्रष्टव्यमित्यभिप्रायः।उतापि चामृतत्वस्य देवत्वस्यायमीशानः स्वामी। यद्यस्मात्कारणादन्नेन प्राणिनां भोग्येनान्नेन निमित्तभूतेनातिरोहति स्वकीयां कारणावस्थामतिक्रम्य परिदृष्यमानां जगदवस्थां प्राप्नोति तस्मात्प्राणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्वीकारणान्नेदं तस्य वस्तुत्वमित्यर्थः।

जो यह वर्तमान जगत् है वह सब पुरुष ही है। और जो अतीत एवं अनागत जगत है वह भी पुरुष ही है। जिस प्रकार वर्तमान कल्प में विद्यमान सभी प्राणियों के देह उसी विराट् पुरुष के अंग हैं उसी प्रकार अतीत एवं भविष्य के कल्पों के भी। इससे अधिक वह अमृतत्व का अर्थात् देवत्व का भी स्वामी है। वह अन्न को निमित्त बनाकर अपनी कारणावस्था को त्यागकर इस दृश्यमान जगतावस्था को प्राप्त होता है। इसलिए यह जगत, जो कि सभी प्राणियों को उनके कर्मफल का भोग कराने के लिए धारण किया गया है, उस पुरुष का वास्तविक स्वरूप नहीं है।

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