Thursday, November 27, 2008

पुरुषसूक्तम्-१

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥१॥

सर्वप्राणिसमष्टिरुपो ब्रहमांडदेहो विराडाख्यो यः पुरुषः सोऽयंसहस्रशीर्षा। सहस्रशब्दस्योपलक्षणत्वादनंतैः शिरोभिर्युक्त इत्यार्ठायानि सर्वप्राणिनां शिरांसि तानि सर्वाणि तद्देहांतःपातित्वात्तदीयान्येवेति सहस्रशीर्षत्वं। एवं सहस्राक्षित्वं सहस्रपादत्वं च। स पुरुषो भूमिं ब्रह्मांडगोलकरुपां विश्वतः सर्वतो वृत्वा परिवेष्टय दशांगुलपरिमितं देशमत्यतिष्ठत्। अतिक्रम्य व्यवस्थितः। दशांगुलमित्युपलक्षणं। ब्रह्मांडाद्बहिरपि सर्वतो व्याप्यावस्थित इत्यर्थः।

सभी प्राणी जिसके अंग हैं और यह ब्रह्मांड जिसका देह है, विराट् नामक वह पुरूष सहस्र शीर्षों वाला है। सहस्र शब्द के उपलाक्षणिक होने के कारण वह अनन्त शीर्षों से युक्त है, एसा कहा गया है। जितने भी सभी प्राणियों के शीर्ष हैं वे सब उसी पुरुष के देह के भीतर विद्यमान हैं, अतः उसी के हैं, यह इसके सहस्रशीर्षत्व का अभिप्राय है। इसी प्रकार वह सहस्र नेत्रों वाला एवं सहस्र पादों वाला है। वह पुरुष इस ब्रह्मांड रूपी भूमि को सभी तरफ से व्याप्त करके इस दशांगुल क्षेत्र से बाहर स्थित है। दशांगुल पद भी उपलाक्षानिक है, अर्थात् इस सीमित ब्रह्मांड के बाहर भी अब कुछ व्याप्त करके अवस्थित है।


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