Tuesday, December 16, 2008
पुरुषसूक्तम्-६
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसंतो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥६॥
यद्यदा पूर्वोक्तक्रमेणैव शरीरेषूत्पन्नेषु सत्सु देवा उत्तरसृष्टिसिद्ध्यार्थं वाह्यद्रव्यस्यानुत्पन्नत्वेन हविरंतरासंभवात्पुरुषस्वरूपमेव मनसा हविष्टेन संकल्पय पुरुषेण पुरुषाख्येन हविषा मानसं यज्ञमतन्वत अन्वतिष्ठसन् तदानीमस्य वसंतो वसंतर्तुरेवाज्यमासीत्। अभूत्। तमेवाज्यत्वेन संकल्पितवंत इत्यर्थः। एवं ग्रीष्म इध्मासीत्। तमेवेध्मत्वेन संकल्पितवंत इत्यर्थः। तथा शरद्धविरासीत्। तामेव पुरोडाशादिहविष्ट्वेन संकल्पितवंत इत्यर्थः। पूर्वं पुरुषस्य हविःसामान्यरूपत्वेन संकल्पः। अनंतरं वसंतादीनामाज्यादिविशेषरूपत्वेन संकल्प इति द्रष्टव्यं।
पूर्वोक्त क्रमानुसार शरीरों के उत्पन्न होने के पश्चात् बची हुई सृष्टि के सृजन के लिए मानसिक यज्ञ किया गया। बाह्य द्रव्यों के इस समय तक उत्पन्न न होने के कारण कोई और पदार्थ आहूति देने के लिए उपलब्ध नहीं था, अतः पुरुष के स्वरूप को हि यज्ञ के रूप में संकल्पित किया गया और पुरुष को ही आहूति के रूप में भी कल्पित किया गया। इस यज्ञ में वसंत ऋतु का घृत, ग्रीष्म ऋतु का समिधा (लकड़ियाँ) एवं शरद ऋतु का हवि (चावल आदि हवन सामग्री ) के रूप में प्रयोग किया गया। पहले पुरुष का सामान्य रूप में हवि की तरह प्रयोग किया गया, तत्पश्चात् (वसंत आदि ऋतुओं के उत्पन्न होने के बाद) उस पुरुष को वसंत आदि विशिष्ट रूपों में घृत आदि की तरह प्रयोग किया गया।
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