Thursday, January 15, 2009

पुरुषसूक्तम्-१६

यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते नाकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः संति देवा:॥१६॥

पूर्वं प्रपंचेनोक्तमर्थं संक्षिप्यात्र दर्शयति। देवाः प्रजापतिप्राणरूपा यज्ञेन यथोक्तेन मानसेन संकल्पेन यज्ञं यथोक्तयज्ञस्वरूपं प्रजापतिमयजंत। पूजितवंतः। तस्मात्पूजनात्तानि प्रसिद्धानि धर्माणि जगद्रूपविकाराणां धारकाणि प्रथमानि मुख्यान्यासन्। एतावता सृष्टिप्रतिपादकसूक्तभागार्थः संगृहीतः। अथोपासनतत्फलानुवादकभागार्थः संगृह्यते। यत्र यस्मिन्विराट्प्राप्तिरूपे नाके पूर्वे साध्याः पुरातना विराडुपास्तिसाधका देवाः संति तिष्ठंति तन्नाकं विराट्प्राप्तिरूपं स्वर्गं ते महिमानस्तदुपासका महात्मानः सचंत। समवयंति। प्राप्नुवंति।

पहले विस्तार में बतये गए यज्ञ को यहाँ संक्षेप में बताया गया है। प्रजापति के प्राणरूपी देवताओं ने सांकल्पिक यज्ञ के द्वारा प्रजापति के उक्त स्वरूप को यज्ञरूप में निष्पादित किया, अर्थात् उनका पूजन किया। उस पूजान से इस जगत को धारण करने वाले जो धर्म (धारक) उत्पन्न हुए, वे मुख्य थे। (इतने भाग से उपर के सृष्टि-प्रतिपादक मंत्रों का अर्थ किया गया है। अब उसकी उपासना का फल बताते हैं।) जो महान लोग उन (धर्मों?) की उपासना करते हैं वे उस विराट् को प्राप्त करवाने वाले स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। उसी स्वर्ग में पुरातन साध्यगण, जो विराट् के उपासक हैं, विद्यमान हैं।

Wednesday, December 31, 2008

पुरुषसूक्तम्-१५

सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुं॥१५॥

अस्य सांकल्पिकयज्ञस्य गायत्र्यादीनि सप्त च्छंदांसि परिधय आसन्। ऐष्टिकस्याहवनीयस्य त्रयः परिधय उत्तरवेदिकास्त्रय आदित्यश्च सप्तमः परिधिप्रतिनिधिरूपः। अत एवाम्नायते। पुरस्तात्परिदध्यादित्यादित्यो ह्येवोद्यन्पुरस्ताद्रक्षांस्यपहंतीति। तत एत आदित्यसहिताः सप्त परिधयोऽत्र सप्त च्छंदोरूपाः। तथा समिधस्त्रिः सप्त त्रिगुणीकृतसप्तसंख्याका एकविंशतिः कृताः। द्वादश मासाः पंचर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः। तै.सं. ..१०.३। इति श्रुताः पदार्था एकविंशतिदारुयुक्तेंधनत्वेन भाविताः। यद्यः पुरुषो वैराजोऽस्ति तं पुरुषं देवः प्रजापतिप्राणेंद्रियरूपा यज्ञं तन्वाना मानसं यज्ञं तन्वानाः कुर्वाणाः पशुमबध्नन्। विराट्पुरुषमेव पशुत्वेन भावितवंतः। एतदेवाभिप्रेत्य पूर्वत्र यत्पुरुषेण हविषेत्युक्तं।

गायत्री आदि सात छंद इस सांकल्पिक यज्ञ कीं परिधियाँ हुईं। एष्टिक-आहवनीय की तीन (परिधियाँ), उत्तरवेदिका की तीन एवं सातवाँ सूर्य, यह सात यज्ञपरिधि के प्रतिनिधि रूप में प्रयुक्त हुए। (कहा भी गया है - ‘न पुरस्तात्परिदध्यादित्यादित्यो ह्येवोद्यन्पुरस्ताद्रक्षांस्यपहंतीति’। अतः, स्पष्ट है कि सूर्य सहित यह कुल सात उस यज्ञ कीं छन्द रूपी परिधियाँ थीं।) तथा तीन गुणा सात अर्थात् इक्कीस समिधायें भी कल्पित की गईं। ‘द्वादश मासाः पंचर्तवस्त्रय इमे लोका असावादित्य एकविंशः’ - बारह मास, पाँच ऋतुयें, तीन लोक और इक्कीसवाँ सूर्य। (तै.सं. ५.१.१०.३)। इस प्रकार इक्कीस पदार्थ ईंधन के लिये लकड़ियों के रूप में कल्पित किये गये। जो विराट् पुरुष था, उसे यज्ञ करते हुए, प्रजापति के प्राणेंद्रियरूपी देवताओं ने पशु रूप में बाँधा - अर्थात् विराट् पुरुष को ही पशु रूप में कल्पित किया। यह बात पहले ‘यत्पुरुषेण हविषा’ में भी कही गयी है।

Saturday, December 27, 2008

पुरुषसूक्तम्-१४

नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

यथा चंद्रादीन्प्रजापतेर्मनःप्रभृतिभ्योऽकल्पयन् तथांतरिक्षादीँल्लोकान्प्रजापतेर्नाभ्यादिभ्यो देवा अकल्पयन्। उत्पादितवंतः। एतदेव दर्शयति। नाभ्याः प्रजापतेर्नाभेरंतरिक्षमासीत्। शीर्ष्णः शिरसो द्यौः समवर्तत। उत्पान्ना। अस्य पद्भ्यां पादाभ्यां भूमिरुत्पन्ना। अस्य श्रोत्राद्दिश उत्पन्नाः।

जिस प्रकार चन्द्र आदि देवताओं को प्रजापति के मन आदि अंगों से (देवताओं ने) कल्पित किया, वैसे ही अंतरिक्ष आदि लोकों को प्रजापति के नाभि आदि अंगों से देवताओं ने कल्पित किया, अर्थात् उत्पन्न किया। प्रजापति की नाभि से अंतरिक्ष (का जन्म) हुआ। शीर्ष से द्युलोक उत्पन्न हुआ। पैरों से भूमि उत्पन्न हुई। कान से दिशाऐं उत्पन्न हुईं।

पुरुषसूक्तम्-१३

चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिंद्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥

यथा दध्याज्यादिद्रव्याणि गवादयः पशव ऋगादिवेदा ब्राह्मणादयो मनुष्याश्च तस्मादुत्पन्ना एवं चंद्रादयो देवा अपि तस्मादेवोत्पन्ना इत्याह। प्रजापतेर्मनसः सकाशाच्चंद्रमा जातः। चक्षोश्च चक्षुषः सूर्योऽप्यजायत। अस्य मुखादिंद्रश्चाग्निश्च देवावुत्पन्नौ। अस्य प्राणाद्वायुरजायत।

जिस प्रकार दधि, घृत आदि द्रव्य, गौ आदि पशु, ऋक् आदि वेद और ब्राह्मण आदि मनुष्य उस (प्रजापति) से उत्पन्न हुए, वैसे ही चन्द्रमा आदि देवता भी उस (प्रजापति) से ही उत्पन्न हुए। प्रजापति के मन से चन्द्रमा का जन्म हुआ। उनकी आँख से सूर्य का जन्म हुआ। मुख से इन्द्र और अग्नि, यह दो देवता उत्पन्न हुए। प्राण से वायु का जन्म हुआ।

Wednesday, December 24, 2008

पुरुषसूक्तम्-१२

ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२॥

इदानीं पूर्वोक्तानां प्रश्नानामुत्तराणि दर्शयति। अस्य प्रजापतेर्ब्राह्मणो ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टः पुरुषो मुखमासीत्। मुखादुत्पन्न इत्यर्थः। योऽयं राजन्यः क्षत्रियात्वजातिमान्पुरुस्छा बाहू कृतः। बाहुत्वेन निष्पादितः। बाहुभ्यामुत्पादित इत्यर्थः। तत्तदानीमस्य प्रजापतेर्यदूरू तद्रूपो वैश्यः संपन्नः। ऊरूभ्यामुत्पन्न इत्यर्थः। तथास्य पद्भ्यां पादाभ्यां शूद्रः शूद्रत्वजातिमान्पुरुषोऽजायत। इयं मुखादिभ्यो ब्राह्मणादीनामुत्पत्तिर्यजुःसंहितायां सप्तमकांडे मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत। तै.. ...४। इत्यादौ विस्पष्टाम्नाता। अतः प्रश्नोत्तरे उभे अपि तत्परतयैव योजनीये।

अब पूर्वोक्त प्रश्नों के उत्तर बताये गये हैं। ब्राह्मण जाति का पुरुष प्रजापति का मुख था, अर्थात् मुख से उत्पन्न हुआ। जो क्षत्रिय जाति का पुरुष था, वह पुरुष की बाहुओं से उत्पन्न हुआ। इसके बाद प्रजापति कि जाँघों से वैश्य जाति का पुरुष उत्पन्न हुआ तथा पैरों से शूद्र जाति का पुरुष उत्पन्न हुआ। (प्रजापति के मुख आदि से ब्राह्मण आदि वर्गों की उत्पत्ति यजुर्वेद के सप्तम कांड में भी कही गई है - ‘स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत।‘ ‘उसने मुख से त्रिवृत (अर्थात् ब्राह्मण) का निर्माण किया’। तै.सं. ७.१.१.४। अतः इन प्रश्नोत्तरों को इसी प्रकार से समझना चाहिये। अर्थात् ब्राह्मण वर्ग का पुरुष का मुख होने से अभिप्राय है कि वह पुरुष के मुख से उत्पन्न हुआ।)

Monday, December 22, 2008

पुरुषसूक्तम्-११

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥११॥

प्रश्नोत्तररूपेण ब्राह्मणादिसृष्टिं वक्तुं ब्रह्मवादिनां प्रश्ना उच्यंते। प्रजापतेः प्राणरूपा देवा यद्यदा पुरुषं विराड्रूपं व्यदधुः संकल्पेनोत्पादितवंतः तदानीं कतिधा कतिभिः प्रकारैर्व्यकल्पयन्। विविधं कल्पितवंतः। अस्य पुरुषस्य मुखं किमासीत्। कौ बाहू अभूतां। का उरू। कौ पादावुच्येते। प्रथमं सामान्यरूपः प्रश्नः पश्चान्मुखं किमित्यादिना विशेषविषयाः प्रश्नाः।

प्रश्नोत्तर रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चतुर्वर्ग की सृष्टि बताने के लिये ब्रह्मवादियों के प्रश्न बताये गये हैं। जब प्रजापति के प्राणरूपी देवताओं ने विराट् रूपी पुरुष को उत्पन्न किया तब किस प्रकार से उसे कल्पित किया? अर्थात् इस पुरुष का मुख क्या था? इसके दो बाहु क्या थे? इसकी दो जाँघें क्या थीं? और इसके दो पैर क्या थे? प्रथम प्रश्न सामान्य प्रश्न है और बाद के प्रश्न ‘मुख क्या था‘ इत्यादि विशेष प्रश्न हैं।

Saturday, December 20, 2008

पुरुषसूक्तम्-१०

तस्मादश्वा अजायंत ये के चोभयादतः। गावो जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥१०॥

तस्मात्पूर्वोक्ताद्यज्ञादश्वा अजायंत। उत्पन्नाः। तथा ये के चाश्वव्यतिरिक्ता गर्दभा अश्वतराश्चोभयादत उर्ध्वाधोभागयोरुभयोर्दंतयुक्ताः संति तेऽप्यजायंत। तथा तस्माद्यज्ञाद्गावश्च जज्ञिरे। किं तस्माद्यज्ञादजावयश्च जाताः।

उस यज्ञ से अश्वों का जन्म हुआ। तथा अश्व को छोड़कर जो गदर्भ आदि पशु हैं तथा जो उभयादत अर्थात् उपर और नीचे दोनों दंतपंक्तियों से युक्त हैं, उनक पशुओं का भी जन्म हुआ। उस यज्ञ से गावों का जन्म हुआ। इसके अतिरिक्त उस यज्ञ से भेड़-बकरियों का भी जन्म हुआ।

पुरुषसूक्तम्-९

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥९॥

सर्वहुतस्तस्मात्पूर्वोक्ताद्यज्ञादृचः सामानि जज्ञिरे। उत्पन्नाः। तस्माद्यज्ञाच्छंदांसि गायत्र्यादीनि जज्ञिरे। तस्माद्यज्ञाद्यजुरप्यजायत।

उस सर्वहुत् यज्ञ से ऋग्वेद की ऋचाओं और सामवेद के मन्त्रों का जन्म हुआ। उस यज्ञ से गायत्रि आदि छन्दों का जन्म हुआ। उस यज्ञ से यजुर्वेद का भी जन्म हुआ।

पुरुषसूक्तम्-८

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥

सर्वहुतः। सर्वात्मकः पुरुषो यस्मिन्यज्ञे हूयते सोऽयं सर्वहुत्। तादृशात्तस्मात्पूर्वेक्तान्मानसाद्यज्ञात्पृषदाज्यं दधिमिश्रमाज्यं संभृतं। संपादितं। दधि चाज्यं चेत्येवमादिभोग्यजातं सर्वं संपादितमित्यर्थः। तथा वायव्यान्वायुदेवताकाँल्लोकप्रसिद्धानारण्यान्पशूंश्चक्रे। उत्पादित्वान्। आरण्या हरिणादयः। तथा ये ग्राम्या गवाश्वादयः तानपि चक्रे। पशूनामंतरिक्षद्वारा वायुदेवत्यत्वं यजुर्ब्रह्मणे समाम्नायते। वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अंतरिक्षस्याध्यक्षाः। अंतरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददातीति।तै.ब्रा. ...३। इति।

इस सर्वहुत् मानसिक यज्ञ से दधिमिश्रित घृत का उत्पादन हुआ। सर्वहुत् अर्थात् सर्वात्मक पुरुष की जिस यज्ञ में आहूति दी जाती है। दधि और घृत आदि सभी भोग्य पदार्थों का उत्पादन हुआ। तथा विभिन्न प्रसिद्ध वायव्य और आरण्य पशुओं का भी सृजन हुआ। वायव्य अर्थात् वायु देवता के अधीन पशु| आरण्य जैसे हिरण आदि पशु। इसके अतिरिक्त ग्राम्य पशु जैसे गौ, अश्व आदि का भी सृजन हुआ। (वायु देवता के अधीन पशुओं के बारे में यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ में भी कहा गया है। ‘वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अंतरिक्षस्याध्यक्षाः। अंतरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददातीति|’ वायु में स्थित या अंतरिक्ष देवता कि अधीन पशु। वायु देवता ही इन्हें उत्पन्न करते हैं। तै.ब्रा. ३.२.१.३।)

Thursday, December 18, 2008

पुरुषसूक्तम्-७

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्व ये॥७॥

यज्ञं यज्ञसाधनभूतं तं पुरुषं पशुत्वभावनया यूपे बद्धं बर्हिषि मानसे यज्ञे प्रौक्षन्। प्रोक्षितवंतः। कीदृशमित्यत्राह। अग्रतः सर्वसृष्टेः पूर्वं पुरुषं जातं पुरुषत्वेनोत्पन्नं। एतच्च प्रागेवोक्तं तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पूरुष इति। तेन पुरुषरूपेण पशुना देवा अयजंत। मनसयागं निष्पादितवंत इत्यर्थः। के ते देवा इत्यात्राह। साध्याः सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः तदनुकूला ऋषयो मंत्रद्रष्टारश्च ये संति। ते सर्वेऽप्ययजंतेत्यर्थः।

सृष्टि से पूर्व उत्पन्न उस यज्ञपुरुष को उस मानसिक यज्ञ में यज्ञ-पशु के रूप में प्रयुक्त किया गया। पशुरूप में कल्पित और लकड़ी के स्तम्भ से बंधे उस पुरुष पर जल छिड़क कर उसका प्रौक्षण किया गया। उस पुरुष रूपी पशु के द्वारा देवताओं ने यज्ञ का निष्पादन किया। वे देवता कौन-कौन थे? साध्यगण, अर्थात् सृष्टि के साधनयोग्य प्रजापति आदि देवतागण, एवं उनके अनुकूल अन्य ऋषि और मंत्रद्रष्टा। इन सभी ने मिलकर यज्ञ किया।

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