Saturday, December 20, 2008
पुरुषसूक्तम्-८
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥८॥
सर्वहुतः। सर्वात्मकः पुरुषो यस्मिन्यज्ञे हूयते सोऽयं सर्वहुत्। तादृशात्तस्मात्पूर्वेक्तान्मानसाद्यज्ञात्पृषदाज्यं दधिमिश्रमाज्यं संभृतं। संपादितं। दधि चाज्यं चेत्येवमादिभोग्यजातं सर्वं संपादितमित्यर्थः। तथा वायव्यान्वायुदेवताकाँल्लोकप्रसिद्धानारण्यान्पशूंश्चक्रे। उत्पादित्वान्। आरण्या हरिणादयः। तथा ये च ग्राम्या गवाश्वादयः तानपि चक्रे। पशूनामंतरिक्षद्वारा वायुदेवत्यत्वं यजुर्ब्रह्मणे समाम्नायते। वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अंतरिक्षस्याध्यक्षाः। अंतरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददातीति।तै.ब्रा. ३.२.१.३। इति।
इस सर्वहुत् मानसिक यज्ञ से दधिमिश्रित घृत का उत्पादन हुआ। सर्वहुत् अर्थात् सर्वात्मक पुरुष की जिस यज्ञ में आहूति दी जाती है। दधि और घृत आदि सभी भोग्य पदार्थों का उत्पादन हुआ। तथा विभिन्न प्रसिद्ध वायव्य और आरण्य पशुओं का भी सृजन हुआ। वायव्य अर्थात् वायु देवता के अधीन पशु| आरण्य जैसे हिरण आदि पशु। इसके अतिरिक्त ग्राम्य पशु जैसे गौ, अश्व आदि का भी सृजन हुआ। (वायु देवता के अधीन पशुओं के बारे में यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ में भी कहा गया है। ‘वायवः स्थेत्याह वायुर्वा अंतरिक्षस्याध्यक्षाः। अंतरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः। वायव एवैनान्परिददातीति|’ वायु में स्थित या अंतरिक्ष देवता कि अधीन पशु। वायु देवता ही इन्हें उत्पन्न करते हैं। तै.ब्रा. ३.२.१.३।)
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