Saturday, December 27, 2008

पुरुषसूक्तम्-१४

नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥

यथा चंद्रादीन्प्रजापतेर्मनःप्रभृतिभ्योऽकल्पयन् तथांतरिक्षादीँल्लोकान्प्रजापतेर्नाभ्यादिभ्यो देवा अकल्पयन्। उत्पादितवंतः। एतदेव दर्शयति। नाभ्याः प्रजापतेर्नाभेरंतरिक्षमासीत्। शीर्ष्णः शिरसो द्यौः समवर्तत। उत्पान्ना। अस्य पद्भ्यां पादाभ्यां भूमिरुत्पन्ना। अस्य श्रोत्राद्दिश उत्पन्नाः।

जिस प्रकार चन्द्र आदि देवताओं को प्रजापति के मन आदि अंगों से (देवताओं ने) कल्पित किया, वैसे ही अंतरिक्ष आदि लोकों को प्रजापति के नाभि आदि अंगों से देवताओं ने कल्पित किया, अर्थात् उत्पन्न किया। प्रजापति की नाभि से अंतरिक्ष (का जन्म) हुआ। शीर्ष से द्युलोक उत्पन्न हुआ। पैरों से भूमि उत्पन्न हुई। कान से दिशाऐं उत्पन्न हुईं।
Comments: Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]





<< Home

This page is powered by Blogger. Isn't yours?

Subscribe to Posts [Atom]