Thursday, December 18, 2008
पुरुषसूक्तम्-७
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्व ये॥७॥
यज्ञं यज्ञसाधनभूतं तं पुरुषं पशुत्वभावनया यूपे बद्धं बर्हिषि मानसे यज्ञे प्रौक्षन्। प्रोक्षितवंतः। कीदृशमित्यत्राह। अग्रतः सर्वसृष्टेः पूर्वं पुरुषं जातं पुरुषत्वेनोत्पन्नं। एतच्च प्रागेवोक्तं तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पूरुष इति। तेन पुरुषरूपेण पशुना देवा अयजंत। मनसयागं निष्पादितवंत इत्यर्थः। के ते देवा इत्यात्राह। साध्याः सृष्टिसाधनयोग्याः प्रजापतिप्रभृतयः तदनुकूला ऋषयो मंत्रद्रष्टारश्च ये संति। ते सर्वेऽप्ययजंतेत्यर्थः।
सृष्टि से पूर्व उत्पन्न उस यज्ञपुरुष को उस मानसिक यज्ञ में यज्ञ-पशु के रूप में प्रयुक्त किया गया। पशुरूप में कल्पित और लकड़ी के स्तम्भ से बंधे उस पुरुष पर जल छिड़क कर उसका प्रौक्षण किया गया। उस पुरुष रूपी पशु के द्वारा देवताओं ने यज्ञ का निष्पादन किया। वे देवता कौन-कौन थे? साध्यगण, अर्थात् सृष्टि के साधनयोग्य प्रजापति आदि देवतागण, एवं उनके अनुकूल अन्य ऋषि और मंत्रद्रष्टा। इन सभी ने मिलकर यज्ञ किया।
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