Friday, December 12, 2008

पुरुषसूक्तम्-४

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषःपादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वङ्व्याक्रामत्साशनानशने अभि॥४॥

योऽयं त्रिपात्पुरुषः संसाररहितो ब्रह्मस्वरूपः सोऽयमूर्ध्व उदैत्। अस्मादज्ञानकार्यात्संसाराद्वहिर्भूतोऽत्रत्यैर्गुणदोषैरस्पृष्ट उत्कर्षेण स्थितवान्। तस्यास्य सोऽयं पादो लेशः सोऽयमिह मायायां पुनरभवत्। सृष्टिसंहाराभ्यां पुनःपुनरागच्छति। अस्य सर्वस्य जगतः परमात्मलेशत्वं भगवताप्युक्तं। विष्टभ्याहमिदं क्रित्सनामेकानशें स्थितो जगत्। .गी. १०.४२। इति। ततो मायायामागत्यानंतरं विष्वङ् देवमनुष्यतिर्यगादिरुपेण विविधः सन् व्यक्रामत्। व्याप्तवान्। किं कृत्वा। साशनानशने अभिलक्ष्य। साशनं भोजनादिव्यवहारोपेतं चेतनं प्राणिजातं अनशनं तद्रहितमचेतनं गिरिनद्यादिकं। तदुभ्यं यथा स्यात्तथा स्वयमेव विविधो भूत्वा व्याप्तवानित्यर्थः।

पुरुष का जो संसार से रहित, ब्रह्मस्वरुपक त्रिपात् अंश था, वह उपर की और उठ गया। अर्थात्, इस अज्ञान से उत्पन्न संसार से बाहर निकल कर, सांसारिक गुणदोषों से अस्पृष्ट, ऊँचाई में स्थित हो गया। उसका बचा हुआ एक-चौथाई अंश यहाँ माया में पुनः उत्पन्न हुआ। वह अंश सृष्टि एवं संहार के द्वारा पुनः पुनः उत्पन्न होता है। (इस समस्त जगत का परमात्मा का अंश होना भगवान के द्वारा भी कहा गया है। 'विष्टभ्याहमिदं कृत्सनमेकांशेन स्थितो जगत्।' मैं इस समस्त जगत को एक अंश से व्याप्त कर स्थित हूँ। भ.गी. १०.४२।) माया में उत्पन्न होने के पश्चात् उसने इस विश्व को देवता, मनुष्य, पशु आदि विविध साशन और अनशन रुपों के द्वारा व्याप्त किया। साशन अर्थात् भोजन आदि व्यवहार से सम्पन्न चेतन प्राणिजाती, अनशन अर्थात् इस व्यवहार से रहित, अचेतन पदार्थ जेसै पर्वत, नदी आदि। स्वयं को उसने उन दोनों प्रकार के विविध रुपों में परिणित करके व्याप्त किया, यह अर्थ है।
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