Wednesday, December 10, 2008
पुरुषसूक्तम्-२
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यं। उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥२॥
यदिदं वर्तमानं जगत्तत्सर्वं पुरुष एव। यच्च भूतमतीतं जगाद्याच्च भव्यं भविष्यज्जगत् तदपि पुरुष एव। यथास्मिन्कल्पे वर्तमानाः प्राणिदेहाः सर्वेऽपि विराट्पुरुषस्यावयवाः तथैवातीतागामिनोरपि कल्पयोर्द्रष्टव्यमित्यभिप्रायः।उतापि चामृतत्वस्य देवत्वस्यायमीशानः स्वामी। यद्यस्मात्कारणादन्नेन प्राणिनां भोग्येनान्नेन निमित्तभूतेनातिरोहति स्वकीयां कारणावस्थामतिक्रम्य परिदृष्यमानां जगदवस्थां प्राप्नोति तस्मात्प्राणिनां कर्मफलभोगाय जगदवस्थास्वीकारणान्नेदं तस्य वस्तुत्वमित्यर्थः।
जो यह वर्तमान जगत् है वह सब पुरुष ही है। और जो अतीत एवं अनागत जगत है वह भी पुरुष ही है। जिस प्रकार वर्तमान कल्प में विद्यमान सभी प्राणियों के देह उसी विराट् पुरुष के अंग हैं उसी प्रकार अतीत एवं भविष्य के कल्पों के भी। इससे अधिक वह अमृतत्व का अर्थात् देवत्व का भी स्वामी है। वह अन्न को निमित्त बनाकर अपनी कारणावस्था को त्यागकर इस दृश्यमान जगतावस्था को प्राप्त होता है। इसलिए यह जगत, जो कि सभी प्राणियों को उनके कर्मफल का भोग कराने के लिए धारण किया गया है, उस पुरुष का वास्तविक स्वरूप नहीं है।
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