Monday, December 15, 2008

पुरुषसूक्तम्-५

तस्माद्विराडजायत विराजो अधि पूरुषः। जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥५॥

विष्वङ् व्यक्रामदिति यदुक्तं तदेवात्र प्रपंच्यते। तस्मादादिपुरुषाद्विराड्ब्रह्मांडदेहोऽजायत। उत्पन्नः। विविधानि राजंते वस्तून्यत्रेति विराट्। विराजोऽधि विराड्देहस्योपरि तमेव देहमधिकरणं कृत्वा पुरुषः तद्देहाभिमानी कश्चित्पुमानजायत। सोऽयं सर्ववेदांतवेद्यः परमात्मा स्वयमेव स्वकीयया मायया विराड्देहं ब्रह्मांडरुपं सृष्ट्वा तत्र जीवरुपेण प्रविश्य ब्रह्मांडाभिमानी देवतात्मा जीवोऽभवत्। एतच्चाथर्वणिका उत्तरतापनीये विस्पष्टमामनंति। वा एष भूतानींद्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढो मूढ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव। नृ. ता. ..९। इति। जातो विराट् पुरुषोऽत्यरिच्यत। अतिरिक्तोऽभूत्। विराड्व्यतिरक्तो देवतिर्यङ्मनुष्यादिरुपोऽभूत्। पश्चादेवादिजीवभावादूर्ध्वं भूमिं ससर्जेति शेषः। अथो भूमिसृष्टेरनंतरं तेषां जीवानां पुरः ससर्ज। पूर्यंते सप्तधातुभिरिति पुरः शरीराणि।

पिछले श्लोक के ‘विष्वङ्व्याक्रामत्’ का यहाँ विस्तार किया गया है। उस आदि पुरुष से विराट् का जन्म हुआ। विराट् अर्थात् जिसमें विविध वस्तुऐँ शोभायमान होती हैं। यह ब्रह्माण्ड उस विराट् का देह हुआ। ‘विराजोऽधि’ अर्थात्, उस विराट् के देह को अधिकृत कर, उस देह में अभिमान करने वाला एक पुरुष उत्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में, सर्ववेदांतवेद्य परमात्मा ने अपनी माया के द्वारा इस ब्रह्मांड का सृजन किया और उसमें जीव रूपे से प्रविष्ट हो गया। (यह बात अथर्ववैदिक उत्तरतापनीय उपनिषद में भी स्पष्ट की गई है। ‘वह माया के द्वारा पंचमहाभूतों, इन्द्रियों, इन्द्रियों के अधिष्टातृ देवताओं और शरीर के पाँच कोशों का सृजन कर विराट् में प्रवेश करके, अमूढ होते हुए भी मूढ की तरह विराजमान है।‘ नृ.ता. २.१.९।) वह विराट् जन्म के उपरान्त अलग होकर देवता, पशु, मनुष्य आदि रूपों में परिणित हो गया। इसके पश्चात् उसने भूमि का सृजन किया। इसके उपरान्त जीवों के पुरों (शरीरों) का सृजन किया। पुर अर्थात् जो सप्तधातुओं से पूरित होता है, अर्थात् शरीर।
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